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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 29 


आचार्य शुक्र की नींद आज एक स्वप्न से अचानक खुल गई थी । बड़ा भयानक स्वप्न था वह । उसे याद करके थोड़ी देर के लिए शुक्राचार्य भी सहम गये । क्या ये स्वप्न भविष्य का कोई संकेत दे रहा है ? आचार्य सोच में पड़ गये । स्वप्न में उन्होंने देखा था कि देवता और दानवों में फिर से एक भयंकर युद्ध छिड़ गया है । देवताओं में न जाने इतनी शक्ति कहां से आ गई थी कि उन्होंने दानवों पर आक्रमण कर दिया था । अपनी शक्ति के मद में शायद वे भूल गये थे कि मैं दैत्य गुरू शुक्राचार्य अभी जिन्दा हूं और मेरे पास अभी भी "मृत संजीवनी विद्या" है । अभिमान और उन्मत्ता का यही तो दुर्गुण है कि वह सोचने समझने की शक्ति नष्ट कर देती है । संभवत : अपनी शक्ति के मद में चूर होकर इंद्र देव के नेतृत्व में देवताओं ने दैत्य राजधानी पर आक्रमण बोल दिया था । 

अचानक हुए इस आक्रमण से दैत्य सेना हतप्रभ रह गई और उन्होंने आनन फानन में युद्ध की तैयारी शुरू की । लेकिन तब तक देवताओं ने दैत्यों को बहुत अधिक हानि पहुंचा दी थी । दैत्य राज्य वृषपर्वा ने मुझे बुला भेजा तब मैं दौड़ा दौड़ा युद्ध स्थल पर पहुंचा । मैंने वहां देखा कि "हमारी दैत्य सेना के अनेक वीर हताहत हुए पड़े हैं । दैत्यराज ने मुझसे आग्रह किया कि मैं अपनी मृत संजीवनी विद्या ने इन दैत्य वीरों को फिर से जीवित कर दूं जिससे हमारी दैत्य सेना की शक्ति और मनोबल दोनों बढ़ जाए । मैंने तत्काल अपनी मृत संजीवनी विद्या का स्मरण किया लेकिन यह क्या ? मृत संजीवनी विद्या मुझे याद ही नहीं आ रही थी । मैंने फिर से उसका स्मरण किया लेकिन मृत संजीवनी विद्या तो मेरे मस्तिष्क से इस तरह से गायब हो गई थी जैसे तेज वायु से बादल क्षण भर में गायब हो जाते हैं । मैं क्रोध और कुण्ठा में भरकर कांपने लगा था । मेरा पूरा बदन पसीने से लथपथ हो गया था । मैंने बार बार मृत संजीवनी विद्या को याद करने की कोशिश की लेकिन वह मुझे याद नहीं आ रही थी । 

उधर देवताओं के हौंसले बहुत बढ़े हुए थे । वे लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे और दानव पीछे हटते जा रहे थे । दैत्यराज वृषपर्वा अपनी पूरी क्षमता से युद्ध कर रहे थे लेकिन इंद्र की शक्ति के सामने वे असहाय से नजर आ रहे थे । देखते देखते इंद्र ने अपने वज्र के आघात से महाराज वृषपर्वा को मूर्छित कर दिया । महाराज को मूर्छित देखकर दैत्य सेना के पैर उखड़ गये और वह भाग खड़ी हुई । महाराज को बंदी बना लिया गया और दैत्य राज्य पर देवताओं का आधिपत्य स्थापित हो गया । दैत्य राज्य पर देवताओं का आधिपत्य हो जाने से मुझे देव गुरू ब्रहस्पति के अधीन होना पड़ गया था । मैं यह बात (ब्रहस्पति के अधीन होने की बात)  कभी स्वीकार नहीं कर सकता था और सपने में वही बात मेरे साथ हो गई थी । इससे बुरी स्थिति मेरे लिए कोई नहीं थी । दैत्य राज्य नष्ट होने से भी अधिक दुखदायी मेरे लिए ब्रहस्पति के अधीन होना लगता है । इससे अधिक भयावह स्वप्न मेरे लिए और क्या हो सकता है" ? शुक्राचार्य सोचने लगे । 

शुक्राचार्य अपनी शैय्या से खड़े हो गये । उन्होंने एक नजर दूसरी चारपाई पर सोती हुई अपनी पुत्री देवयानी पर डाली । देवयानी शायद कोई मधुर स्वप्न देख रही थी क्योंकि उसके मुख पर एक स्मित मुस्कान खेल रही थी । "किसी देव या राजकुमार को सपने में देख रही है शायद" ? आचार्य ने सोचा "इस आयु में ऐसे ही तो स्वप्न आते हैं । स्वप्न भी आयु के अनुसार आते हैं" । यह सोचकर शुक्राचार्य के स्वप्न से मलिन मुख पर प्रसन्नता की किरणें खेलने लगीं
 । वे अपनी कुटिया से बाहर आ गये । 

रात्रि का एक पहर अभी बाकी था । आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे जैसे कह रहे थे "माना कि हममें चंद्र जितना प्रकाश नहीं है किन्तु हम सब तारों के सम्मिलित प्रकाश से पृथ्वी पर इतना प्रकाश तो हो ही जाता है जिससे आसपास की वस्तुऐं दिखाई दे सकें । और अमावस के दिन तो केवल हम तारों से ही प्रकाशमान होती है पृथ्वी" । इस बात से जैसे तारे प्रसन्न हो रहे थे । शुक्राचार्य ने तारों की ओर देखकर एक गहरी सांस ली । गहरी सांस लेने से हृदय गति नियंत्रित हो जाती है । 

शुक्राचार्य अपने ही विचारों में मग्न होकर अपने आश्रम में टहलने लगे । कितने सुन्दर सुन्दर पौधे लगा रखे हैं देवयानी ने ? गुलाब की तो पूरी एक बगिया ही खिला रखी है उसने । न जाने कहां कहां से भांति भांति के पौधे लेकर आती है देव ? ये उसी के प्रयास हैं जिससे प्रत्येक प्रकार का पौधा इस आश्रम में मिल जाएगा । उसी के परिश्रम का परिणाम है कि यह आंगन आज इतना सुगंधित हो रहा है । शुक्राचार्य विभिन्न प्रकार के गुलाबों और अन्य पुष्पों को देखने लगे । पुष्पों की क्यारी देखते देखते वे आश्रम में काफी आगे निकल आये थे । 

अचानक उनकी निगाह सामने के मैदान पर पड़ी । वे अचानक वहीं ठिठक कर रुक गए । उन्हें वहां पर एक परछाई सी नजर आई थी । "कौन हो सकता है वहां" ? शुक्राचार्य सोचने लगे पर कुछ समझ में नहीं आया । तब उन्होंने ऊंची आवाज में कहा "कौन है वहां" ? 

अचानक उस परछाई ने शुक्राचार्य की ओर देखा और वह परछाई शुक्राचार्य की ओर दौड़ती हुई नजर आने लगी । पास आने पर वह परछाई बोली "प्रणाम आचार्य । मैं आपका शिष्य कच हूं । मेरे लिए क्या आज्ञा है आचार्य" ? 

कच को वहां देखकर आचार्य आश्चर्य में पड़ गए । कहने लगे "वत्स, सोए नहीं क्या या मेरी तरह किसी भयानक स्वप्न से तुम्हारी नींद खुल गई" ? कच के सिर पर हाथ फिराते हुए आचार्य ने कहा । 
"नहीं आचार्य । मैं समय पर सो गया था और मेरी नींद भी पूरी हो गई है । मुझे कोई सपना भी नहीं आया । मैं तो वहां स्वर्ग लोक में भी इसी समय जग जाता हूं और योग करता हूं । इसी प्रकृति के कारण मैं भोर अंधेरे ही जाग गया था और योग करने लग गया था" । कच ने विनम्रता से कहा । 

कच को इतनी जल्दी जगे हुए देखकर आचार्य आश्चर्य चकित रह गये थे । एक विद्यार्थी में जो गुण होने चाहिए वे सब कच में थे । एक विद्यार्थी में क्या क्या गुण होने चाहिए उन्हें एक श्लोक में बताया गया है । 
काक चेष्टा बको ध्यानम् श्वान निद्रा तथैव च । 
अल्पाहारी, गृहत्यागी,  विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।। 

कच में ये सब गुण कूट कूटकर भरे हुए थे । शुक्राचार्य को कच जैसा योग्य शिष्य पाकर गर्व की अनुभूति हुई । कच को योग करते देखकर शुक्राचार्य कच को योग के भेद समझाने लगे और आसन तथा प्राणायाम करने की विधि स्वयं करके बताने लगे । कच को भी योग के गूढ तत्व जानकर बहुत आनंद आया । तब तक सूर्य देवता धरती पर अपनी किरणें बिखराने आ गये थे । शुक्राचार्य और कच ने "सूर्य नमस्कार योग" द्वारा सूर्य देव का अभिवादन किया । तत्पश्चात आचार्य शुक्र अपनी कुटिया में वापस आ गये । 

श्री हरि 
4.7.2023 

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